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ऋषिकेश मुखर्जी का था अनोखा स्टाइल, शतरंज की तरह सोच-समझकर बुनते थे सीन

मुंबई, 26 अगस्त (आईएएनएस)। ऋषिकेश मुखर्जी हिंदी सिनेमा के उन महान निर्देशकों में से एक थे जिनकी फिल्मों ने दर्शकों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई। वे सिर्फ कहानी बताने वाले निर्देशक नहीं थे, बल्कि अपनी फिल्मों में मानवीय भावनाओं और जिंदादिली को बड़ी खूबसूरती से पेश करने वाले कलाकार भी थे। उनकी फिल्मों में हल्का-फुल्का हास्य, भावनात्मक गहराई और रोजमर्रा की जिंदगी के रंग होते थे, जिससे हर उम्र के लोग जुड़ जाते थे। उनका निर्देशन करने का तरीका भी काफी अनोखा था। शूटिंग के दौरान वे अक्सर शतरंज खेलते हुए नजर आते थे, और उसी खेल की तरह अपने सीन को भी सोच-समझकर रणनीति के साथ सेट करते थे।
 

मुंबई, 26 अगस्त (आईएएनएस)। ऋषिकेश मुखर्जी हिंदी सिनेमा के उन महान निर्देशकों में से एक थे जिनकी फिल्मों ने दर्शकों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई। वे सिर्फ कहानी बताने वाले निर्देशक नहीं थे, बल्कि अपनी फिल्मों में मानवीय भावनाओं और जिंदादिली को बड़ी खूबसूरती से पेश करने वाले कलाकार भी थे। उनकी फिल्मों में हल्का-फुल्का हास्य, भावनात्मक गहराई और रोजमर्रा की जिंदगी के रंग होते थे, जिससे हर उम्र के लोग जुड़ जाते थे। उनका निर्देशन करने का तरीका भी काफी अनोखा था। शूटिंग के दौरान वे अक्सर शतरंज खेलते हुए नजर आते थे, और उसी खेल की तरह अपने सीन को भी सोच-समझकर रणनीति के साथ सेट करते थे।

शतरंज की चालों की तरह ही वे फिल्मों के हर सीन को बारीकी से तैयार करते थे और अचानक कभी भी उठकर कलाकारों को सटीक निर्देश दे देते थे। यह खास तरीका ही उनकी फिल्मों को इतना अलग और खास बनाता था।

ऋषिकेश मुखर्जी का जन्म 30 सितंबर 1922 को कोलकाता में हुआ था। एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मे मुखर्जी ने अपनी शिक्षा विज्ञान विषय में पूरी की और कलकत्ता यूनिवर्सिटी से केमिस्ट्री में ग्रेजुएशन किया। लेकिन उनकी रुचि फिल्मों में थी और वे जल्द ही फिल्म इंडस्ट्री की ओर बढ़ गए। शुरुआत में उन्होंने फिल्मों में एडिटिंग का काम किया और बिमल रॉय जैसे महान निर्देशकों के साथ एडिटर के रूप में काम करके अनुभव हासिल किया। उनके एडिटिंग के काम को खूब सराहा गया और धीरे-धीरे उन्होंने निर्देशन की ओर कदम बढ़ाया।

1957 में उनकी पहली फिल्म 'मुसाफिर' आई, लेकिन असली सफलता 1959 में बनी फिल्म 'अनाड़ी' से मिली, जिसने कई फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीते। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की खास बात यह थी कि वे आम लोगों की जिंदगी के साधारण किस्सों को बड़ी खूबसूरती से पर्दे पर उतारते थे। उनकी फिल्मों जैसे 'आनंद', 'चुपके-चुपके', 'गुड्डी', 'बावर्ची' और 'सत्यकाम' ने हिंदी सिनेमा को नई दिशा दी। ये फिल्में आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं क्योंकि इनमें जीवन के छोटे-छोटे सुख-दुख की झलक मिलती है।

ऋषिकेश मुखर्जी का निर्देशन का तरीका भी बड़ा अनोखा था। शूटिंग के दौरान वे अक्सर सेट पर शतरंज खेलते हुए देखे जाते थे। एक इंटरव्यू में अभिनेता असरानी ने बताया कि उन्हें सेट पर शतरंज खेलता देख वह मौजूद कई लोग हैरान रह जाते थे कि इतनी जिम्मेदारी वाले काम में वे इतनी शांति से खेल कैसे सकते हैं। लेकिन यही उनकी खासियत थी। शतरंज की तरह वे हर सीन को ध्यान से सोचते, हर एक एंगल को समझते और फिर अपने कलाकारों को सही दिशा देते। अचानक शतरंज खेलते-खेलते वे उठ जाते और कलाकारों को सटीक निर्देश देते थे, जिससे कि सीन में जान आ जाती थी। उनका मानना था कि फिल्म भी एक खेल की तरह होती है, जहां हर चाल सोच-समझकर चलनी चाहिए ताकि आखिरी परिणाम बेहतर हो। इस शैली ने उनकी फिल्मों को सरल और प्रभावशाली बनाया, जो दिल को छू जाती हैं।

ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने करियर में कई पुरस्कार भी जीते। उनकी फिल्म 'अनाड़ी' को पांच फिल्मफेयर अवॉर्ड मिले और वे खुद फिल्मफेयर पुरस्कारों में भी नामांकित हुए। उनकी फिल्मों की खासियत यह थी कि वे दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ जीवन की सच्चाई भी समझाते थे। ऋषिकेश ने अपनी फिल्मों के जरिए परिवार, दोस्ती, प्यार और समाज की कहानियां बहुत सहजता से पेश कीं। वे सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन का आईना मानते थे।

उन्होंने 27 अगस्त 2006 को इस दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी फिल्मों और उनके निर्देशन का अनोखा अंदाज आज भी हिंदी सिनेमा में जिंदा है।

--आईएएनएस

पीके/एएस